अंधेरी सुबह
है आँखो में आंसू
होठ हैं बेसब्द
करनी ने एक और मानव की ही
किया है पुरे समाज को स्तब्ध
कोई कहता है ये पुलिस की नाकामी
किसी को लगती है ये सरकार की लाचारी
कर सकते हैं ये आरोप प्रत्यारोप कल से
आज सुबह तो लगता है , थी ये मेरी ही जिम्मेवारी
कहते हैं समाज जिसे
ये मेरे तुम्हारे सोच का ही तो किस्सा है
अगर लुटती है एक इज्ज़त सरेआम
आपका मेरा भी तो उसमे लुटता एक हिस्सा है
अब जो टुटा है ये कहर इस कदर
देश सोया यूवा जागे हैं
हिंदुस्तान को सुरक्षित एवम भ्रस्टाचार रहित बनाने के
अब हमारे और भी पुख्ता इरादे हैं
अगर आवाज़ नहीं उठाई इस बार
मानव कहलाने में शर्म आएगी
आज नहीं तो कल
एक और "हिन्दुस्तान की बेटी" अपने प्राण गवाएगी ...
मनीष रंजन