Tuesday, January 25, 2011

मुस्कान


सोचता है दिल क्यों लगती है ये राहे अनजान
    इस खिलखिलाहट में खो गयी वो मासूम मुस्कान
कर तो दिए खड़े ढेर रुप्यूओं के
   पर कह रह गयी हमारी तुम्हारी पहचान

वो छोटो छोटी खुशियाँ , वो लड़ना हमारा
  वक़्त बेवक्त फॉर वो रूठना मनाना हमारा
अब जो हमे फुर्सत का लम्हा मयस्सर नहीं  होता
  फीर किस्से रूठना और किसको मनाना , सोचता है दिल बेचारा


सोचता है दिल क्यों लगती है ये राहे अनजान 
    इस खिलखिलाहट में खो गयी वो मासूम मुस्कान


सीधी सी थि ये जिंदगी जब खुशियाँ हमे ढूंढती थी
  अब जो सोचु तो लगे हम खुशियाँ को ढूंढते है
मिलती थी जो ठंढक तुम्हारे पहलु में आँगन में बैठ के
   अब हम उस ठंढक को बाजारू बर्तनों में ढूंढते है
रहते तो है एक घर में एक ही छत के निचे
  फीर क्यों हम दो पाल की संगत को ढूंढते हैं 

मिले है जो ये दो पल , आओ बैठें बातें करें
    खोजे तो सही की किसने बनाया मुझको तुमसे  अनजान
जो सून सकें थोरा सा हम अपने दिल की तान
    चलो साथ ख़ोज लायें वो मासूम मुस्कान

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